सुभाष चन्द्र कुशवाहा –
जाति संगठनों से जुड़े ओबीसी और दलित मित्रों से कुछ अपनी समझ साझा कर रहा हूँ। मेरा फोकस मुख्यतः ओबीसी की मुख्य जातियों के संगठनों तक सीमित है, जिनके निहितार्थ और सामाजिक हस्तक्षेप से वंचित समाज का भला नहीं दिखता।
आप कुशवाहा, मौर्य संगठन खड़ा कर अपनी जाति का उत्थान चाहते हैं। आप अपने को कुश से जोड़, क्षत्रिय बोध से गदगद होते हैं। अशोक महान का कलेंडर छापते हैं। आप कुर्मी सभा बनाते हैं। पटेल की मूर्ति से स्वंय को महान मान लेते हैं। आप यादव सभा बनाते हैं और कृष्ण को अपना नायक मान गर्व करते हैं। भर सभा बनाते हैं और सुहलदेव को याद करते हैं। यहीं आप कुछ जरूरी नायकों को भी याद करते हैं जिनमें ज्योतिबा फुले, साबित्री बाई फुले, पेरियार, कबीर, बुद्ध, ललाई यादव, रामस्वरूप वर्मा और अम्बेडकर हैं। इनसे सीखते हैं।
आप इनसे क्या सीखते हैं, यही विचार का बिंदु है। यह सही है कि वर्णवादी व्यवस्था में जाति उत्पीड़न, भेदभाव और आर्थिक गुलामी के आप शिकार रहे हैं। इससे मुक्ति की चाह में जातिदंश का उल्लेख जरूरी है। जातिप्रथा की बुराई जरूरी है मगर क्या इससे मुक्ति आंदोलन के लिए जाति संगठनों की जरूरत है? क्या जाति गौरव में फंसी जातियां खुद वर्णवादी व्यवस्था में स्वंय को समायोजित नहीं कर लेतीं? क्या जाति विशेष के संगठनों के बहाने उस जाति विशेष के नेता, विधायक और सांसद बन, अपने परिवार का संरक्षण नहीं करते?
अगर वे आपके लिए चिट्ठी लिख देते हैं, कोई सिफारिश कर देते हैं तो आप गदरा जाते हैं। आपके घर पर, उनके लाव-लश्कर आ जाता है तो आप धन्य हो जाते हैं। जब तक आप इस सोच से ग्रसित रहेंगे, सभी वंचित समाज, जिनमें अल्पसंख्यक भी हैं, का सामाजिक उत्थान नहीं चाहेंगे, आप वंचित समाज के सामाजिक सम्मान, आर्थिक विकास के बारे में नहीं सोचेंगे, आप जातिवादी बने रहेंगे। जब आप अपने को क्षत्रिय बताने का गर्व करते हैं, तो आप जहां हैं, उसको निम्न मान लेते हैं। वर्णवादी व्यवस्था में ओबीसी के लोग अपने को क्षत्रिय घोषित भले कर लें, कोई दम्भी क्षत्रिय, आपको स्वीकार नहीं सकता।
जातिवादी संगठन, जातिमुक्ति के बारे में नहीं सोच सकता। एक जातिवादी व्यक्ति, घोर कट्टर, पाखंडी, रूढ़िवादी और संकीर्ण सोच का होता है। उससे ओबीसी, दलितों का भला नहीं होने वाला। अब अपने नायकों के बरक्स कुछ सोचिए। फुले ने माली संगठन बनाया क्या? रामस्वरूप वर्मा ने कुर्मी सभा बनाई क्या? क्या उन्होंने शोषित- वंचित समाज की मुक्ति के बारे में नहीं सोचा? सोचा न।
फुले ने किसान संगठन बनाया। मजदूर संगठन बनाया। महिला मुक्ति की लड़ाई में विधवा प्रसूति गृह में ब्राह्मण स्त्रियों की भी डिलीवरी कराई। उनके बच्चों को पालने के बारे में सोचा। इसी प्रकार अम्बेडकर ने भी समस्त दलित समुदाय की मुक्ति की लड़ाई लड़ी। अपनी जाति तक सीमित न रहे। ओबीसी और अन्य वंचित समाज की बराबरी की बात की।
रही बात मिथकों या इतिहास में दर्ज नायकों यथा मौर्य, अशोक, सुहलदेव आदि की तो उन्हें जानिये, पढ़िए, सीखने वाली बात सीखिए मगर उनके कलेंडर छापने, उस बहाने चंदा उगाहने वालों से पूछिए कि बेहतर शिक्षा, बेहतर चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा, सभी वंचितों की आवश्यकता है या नहीं? इसकी लड़ाई केवल एक जाति कैसे लड़ पाएगी? अधिक से अधिक अपनी 10 प्रतिशत आबादी का पूरा समर्थन प्राप्त कर ले तो भी कुछ नहीं कर पाएगी ।
हां, आपके नायकों का, गौरवगान कर वर्णवादी आपका आखेट कर लेगा। जैसे कि अम्बेडकर के आगे माथा झुकाने का नाटक करने वाले वर्णवादियों ने दलितों पर तरह-तरह के जुल्म ढाए। ऐसे लोग, आपके किसी मिथकीय नायक की जयंती मना कर, आपका वोट हथिया लेंगे। आपके बच्चे के कंधे से स्कूली बस्ता छीन कर, कांवड़ पकड़ा देंगे। आपके बच्चे का हिस्सा, उसके बच्चे को मिलेगा और वह IAS बन जायेगा। कांवड़ ढोता बच्चा, सदा, IAS बने बच्चे का दास बना रहेगा। आपको, आपके मिथकीय नायकों की मूर्ति लगाने, जयंती समारोह मनाने जैसे सम्मान में फंसाए रखेगा। जाति संगठन उनकी मदद करेंगे। इसलिए साथियों, सभी वंचितों की लड़ाई जो लड़े, उसके साथ जुड़िए। जातिदंश के प्रतिकार के लिए वर्गीय अवधारणा की जरूरत को समझिए।
याद रखिए, जाति संगठन, कभी भी वंचित समाज की मुक्ति नहीं चाहते। वह दलाली, चंदा और पद प्राप्ति के लिए होते हैं। उनके पास वैज्ञानिक विचारधारा नहीं होती। सामाजिक समस्याओं की समझ नहीं होती। बिना वैज्ञानिक और प्रगतिशील विचारों के, कारपोरेट लूट और सत्ता की घेराबन्दी से मुक्ति सम्भव नहीं। आप अपने विचार साझा कर सकते हैं, भले ही असहमत हों।
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