‘आज के कवि’
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अस्मुरारी नंदन मिश्र आत्मप्रचार से दूर रहने वाले कवि हैं. यह कवि पुरुषवादी समाज की हरक़तों पर पैनी नज़र रखता है और बताते हैं कि तमाम बंदिशों और खाप पंचायत द्वारा प्रेमियों को सज़ा सुनाएं जाने के बाद भी लड़कियां प्रेम कर रही हैं! कवि जानता है कि कोई भी पहरेदारी और डर प्रेम को रोक नहीं सकता, बांध नहीं सकता.
दरअसल कवि अस्मुरारी नंदन मिश्र इसी तरह से प्रेम करने वाली लड़कियों के पक्ष में खड़े होकर इस पितृसत्ता को चुनौती देने वाली लड़कियों के हौसले को सलाम दे रहे हैं.
कवि अस्मुरारी नंदन पेशे से एक अध्यापक हैं और उन्हें पता है, इस समाज की कुरीतियों और असमानता ने मानवीयता का नाश किया है. इसीलिए कवि जानता है उसे किसके पक्ष में खड़ा होना है और किसे चुनौती देना है. तभी तो यह कवि कहता है कि –
मैं चाहता हूँ / कि राजा करे खेती
लेकिन पहले पहचान ले / धान और भांग के पौधे का अंतर
कवि चाहता है कि –
राजा बन जाए चरवाहा / लेकिन उसे आती हो इतनी भर गिनती
कि भेड़ें रोज कम न पड़ने लगें!
किन्तु कवि भलीभांति जानता है कि राजा उनकी इन छोटी-छोटी चाहतों को पूरा नहीं कर सकता है –
मगर कमबख़्त सिंहासन, मुकुट और जयकारे हैं / जो राजा को मेरी इच्छा सुनने तक नहीं देते !!
कवि अस्मुरारी नंदन की भाषा आम जन की भाषा है और उनकी कविताएं सामान्य पाठकों से संवाद करती हैं. किन्तु वे बिंब और शिल्प नहीं खोते न ही जबरन किसी शिल्प में बंधने की लालसा में लय छोड़ते हैं.
कवि की जीने की इस चाह में किसकी चाह नहीं है ?
बारुद और चिनगारी दोनों है तुम्हारे पास एक साथ / पल भर में तुझे ही खत्म कर देने वाले आग्नेयास्त्र हैं
ओ दुनिया! तुझे इस हालत में छोड़कर / मैं मरना नहीं चाहता…!
कवि मरता नहीं है, वह सैदव ज़िन्दा रहता है अपने पाठकों में, अपनी रचनाओं में.
— नित्यानंद गायेन
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अस्मुरारी नंदन मिश्र की कविताएं
1.
लड़कियाँ प्यार कर रही हैं
खिड़कियों में लगाई जा रही हैं
मजबूत जालियाँ, परदे को किया जा रहा है
चाक-चौबंद
दरवाजे को दी जा रही है सीख
किस दबाव से खुलना है, किससे नहीं
गढ़ी जा रही हैं घर की परिभाषाएँ
बतलाया जा रहा है दहलीज का अर्थ
ढोल पर गायी जा रही हैं तहजीबें
बड़े-बड़े धर्मज्ञानी लेकर बैठ चुके हैं धर्म की किताबें
पंडित – मुल्ला सभी हो गए हैं एक मत
सख्त की जा रही है फतवों की भाषा
कवि गा रहे हैं लाज लिपटे सौन्दर्य के गीत
सान चढ़ तेज हो रही हैं
नजरों की तलवारें
पूरी भीड़ धावा बोल चुकी है बसंत, बादल, स्वप्न पर
पार्कों में पहरे दे रहे हैं मुस्तैद जवान
गुलाब की खुशबू घोषित हो चुकी है जहरीली
चौराहों पर जमा हो रहे हैं ईंट-पत्थर
शीशियों में भरा जा चुका है उबलता तेजाब
चमकाई जा रही है पिताओं की पगड़ी
रंगी जा रही है भाइयों की मूछें
जिम्मेदारों की एक पूरी मंडली
कर रही है संजीदा बहसें
खचाखच भरी खाप पंचायत में
सुनाई जा रही है
सभ्यता के सबसे जघन्य अपराध की सजा
और इनसब के बावजूद
लड़कियाँ प्यार कर रही हैं…
2.
बाँस
रामनवमी की ध्वजा
बजरंगबली के नाम से नहीं
बाँस के सहारे ही लहराती रही है
तीस फीट ऊँचा
आसमान में साल भर
वर्ना कटी पतंग की तरह गिरी होती
छत-दीवार-गली-मैदान-खेत में
पेड़ों पर, काँटों में उलझ कर रह गयी होती
सुना है रावण कर रहा था
स्वर्ग तक के लिए सीढ़ी का निर्माण
बाँसों के बल से ही…
कई किस्से हैं,
कई कहानियाँ हैं,
किंतु मैं इनके बीच सिर्फ बाँस को जानता हूँ
धनुष में, तीर में, कमान में
खूँटे में, मचान में
पतंग की कमानी में
छप्पर में, छानी में
थम्भ में, ओट में, टट्टी में
हड्डियाँ जोड़ती पट्टी में
रसोई में, जलावन में
बैठक में, बिछावन में
हर हाथ का सहारा जो काठी है
सीधे बाँस की वह लाठी है
मैं बस बाँस को जानता हूँ…
सिधाई का मतलब कमजोरी नहीं होती
झुकने का मतलब गिर जाना नहीं
इकाई होना समाज-निरपेक्ष होना नहीं होता कभी
बाँस, जितना कठोर उतना ही लचीला भी
जितना चिकना उतना ही खरोंचदार
यह बाँस ही है
मजबूत है,
कठोर है,
उद्घर्ष है यह
वियतनामी संघर्ष है यह
इसकी एक रगड़ में छिपी है जंगल जला देने वाली आग
पोला है पर ढोल नहीं है
यह जिस-तिस का बोल नहीं है
इसके पास है अपने पत्तों की गर्म सरसराहट …
बाँस का होना सम्बल का होना है
सिर्फ कोरी कथाओं और उनके कथावाचकों के लिए ही नहीं
हमारे लिए भी
इसी पर खुद को निश्चिंतता से छोड़े
टिकी है छानी-छप्पर
लता-बेल इससे ही गलबहियाँ डाले चढ़ रही है ऊपर
और हम भी
जन्म से लेकर पूरे जीवन
जीते रहेंगे इसे ही
बचपन के पालने और यौवन की बाँसुरी से
बुढ़ापे की लाठी तक बाँस ही बाँस है
अंततः चिता तक भी पहुँचाएगा यही
अंतिम सवारी बन
लेकिन बाँस मरने का नहीं
जीने का प्रतीक है
आज तक कोई आँधी इसे उखाड़ नहीं पायी
कोई बाढ़ बहा नहीं ले गयी इसे
ये जिस मजबूती से पकड़े है धरती को
कि खत्म नहीं किया जा सकता इसे
और इसने सिर्फ अपने को मजबूती से नहीं बनाये रखा है
बल्कि थाम रखा है अपनों को भी
जिसे भी इस सच पर हो जरा भी शंका
दिखाये तो खींचकर कोठी से
एक साबुत बाँस…
3.
मेरे गाँव का पहाड़
पहाड़ों की इतनी बड़ी दुनिया में
इसको कौन गिनेगा
हो पहाड़ों की कोई सभा
वहाँ कुर्सी तो क्या
सबसे पीछे खड़े रहने की जगह भी
शायद ही मिले
और यदि कह ही दिया जाए
अपने बारे में बताने को
तो क्या बताएगा
एकाएक जिसे चढ़ा दिया हो
किसी बड़ी सभा के मंच पर
उस बच्चे-सा खड़ा हो जाएगा
अचकचाया और सकुचाया-सा
क्या बताए
कि एक नदी का बचपन तक नहीं देखा
कि आसमान के बादल लांघ जाते रहे खेल-खेल में
कि न समाधि के लिए एकांत रहा
न आरोहियों के लिए चुनौती
वह तो छाती तानकर यह भी नहीं कह सकता
कि आक्रांता लौट जाते रहे टकराकर
उसे तो हवा भी गुदगुदाकर निकल जाती रही
यहाँ तक कि होलिका की लुकाठी लिये बच्चे
दौड़ कर चढ़ जाते रहे चोटी तक
वह किसी के लिए दुर्गम नहीं रहा
किसी के लिए अलंघ्य नहीं
वह तो हमारे गाँव की तरह ही छोटा रहा
हमारी तरह रहा नगण्य
जब जोर ही दिया जाए
बोलो… बोलो…
तो शायद यही कहे –
मैं तो चराता रहा बकरियाँ
खाता रहा वन-बैर
ज़मीन में खुभ गये लट्टू-सा रहा
मुझे मत बनाओ पहाड़
मुझसे गिरकर किसी की जान नहीं गयी
आज तक…
4.
राजा से चाह
मैं चाहता हूँ
कि राजा करे खेती
लेकिन पहले पहचान ले
धान और भांग के पौधे का अंतर
मैं चाहता हूँ
राजा बन जाए चरवाहा
लेकिन उसे आती हो इतनी भर गिनती
कि भेड़ें रोज कम न पड़ने लगें
मैं चाहता हूँ
राजा गाये गीत
लेकिन अपने राग को राष्ट्रीय राग घोषित न करे
मैं चाहता हूँ
राजा कविता लिखे
लेकिन सबसे पहले निकाले उसे
जो राजा के पादने पर वाह-वाह कर उठते हों
मैं चाहता हूँ
राजा नाचे झूमकर
लेकिन बार-बार कोसने नहीं लगे आँगन को
मैं चाहता हूँ
राजा बनाये चित्र
लेकिन उसे पता हो रंगो का समायोजन
यह भी कि लाल के लिए न बहाया जाए लहू
और काले के लिए न चलाए कोड़े
मैं चाहता हूँ
राजा बजाये अपना प्रिय वाद्ययंत्र जी भर
फूँकता रहे अपनी साँस
किसी बाँसुरी में
लेकिन जब जलने लगे रोम
तो राजा सबसे पहले आए
माथे पर भरा हुआ घड़ा ले
राजा से बहुत छोटी-छोटी इच्छाएँ रही अपनी
मसलन यही
कि जब भी कहूँ ‘जय हो राजा की’
वह गुम जाए प्रजा में
मगर कमबख़्त सिंहासन, मुकुट और जयकारे हैं
जो राजा को मेरी इच्छा सुनने तक नहीं देते
5.
मरना नहीं चाहता
तुम्हारे पास फूल है, तितली है, चिड़िया है
तुम्हारे पास बीज है, अंकुर है, फसलें हैं
हवा-पानी, साँस-प्यास सब है तुम्हारे पास
तुम्हारे पास स्वाद है, तृप्ति है
रंग, प्रकाश और आँखें
पूरा का पूरा जीवन है तुम्हारे पास
ओ धरती! तुमसे मुँह मोड़कर मैं मरना नहीं चाहता
तुम्हारे पास काँटों के जाल हैं
खर-पतवार है, वीरान मरुथल है
कीचड़ है, दलदल है, धुआँ है
जीभ जला देने वाले अम्ल हैं
बारुद और चिनगारी दोनों है तुम्हारे पास एक साथ
पल भर में तुझे ही खत्म कर देने वाले आग्नेयास्त्र हैं
ओ दुनिया! तुझे इस हालत में छोड़कर
मैं मरना नहीं चाहता…
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